Wednesday, November 24, 2010
एक शाम घर से दूर
इससे पहले मैंने अपनी ज़िन्दगी मैं कभी कलमबंद नहीं की .आज जब मैं लिखने जा रहा हूँ तो ऐसा लगता है की मैं निशब्द हूँ.मैं उस शाम की बात कर रहा हूँ .जिसका इंतज़ार हर लोग अपने घर जाने के लिए करते हैं.मेरी शाम अनोखी है ये शाम जहांगीराबाद मीडिया इंस्टिट्यूट की है जो औरो की शाम से अलग है जब हम अपनी क्लास ख़त्म करके बाहर आते हैं तो लगता की मैं अलग दुनिया में हूँ . में अपनी दिन भर की थकान को भूल जाता हूँ और ख्यालों की दुनिया में पंख लगा कर उरने लगता हूँ . यह लम्हा बहुत ही छोटा होता है .लेकिन में इस लम्हे का पूरा मज़ा लेता हूँ . जैसे ही अँधेरा होता है . हम अलाव जलाते है हम अलाव का मज़ा लेते लेते दुनिया भर की ठिठोलियाँ कर लेते हैं . अचानक हम लोगों की बीच हमारे सर आ जाते हैं फिर एक नया अभ्यास शुरू हो जाता है जो हमें जीने का नया हुनर देता है मैं अपने आप को सबसे अलग महसूस करता हूँ जब भी यहाँ से जाने का ख्याल आता है तो दिल मैं बेचैनी आ जाती है और कभी भी जहांगीराबाद मीडिया इंस्टिट्यूट से जाने का दिल नहीं करता है . ज़िन्दगी ने अगर दुबारा मौका दिया तो मैं इस इंस्टिट्यूट और इसकी शाम से हमेशा जुरा रहूँगा .
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beta likhte raho ...v. gud...
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